Shivpuri:सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की लापरवाही ने ली 11 माह की बच्ची की जान,बीमार बच्ची को बचाने ऊफनता नाला पार कर अस्पताल अस्पताल भटकती रही मां

दूधमुंही बच्ची को बचाने के लिए मां की संघर्ष गाथा, एम्बुलेंस नहीं मिली तो चादर में लपेटकर बस से ले गई शव
आगे हम जो आपको बताने जा रहे हैं वो शिवपुरी जिले की मनीषा आदिवासी की कहानी है जो व्यवस्था की क्रूरता और असंवेदनशीलता की जीती-जागती मिसाल है। 11 महीने की बच्ची को बचाने के लिए एक मां ने अपनी जान जोखिम में डालते हुए उफनते नाले को पार किया, लेकिन सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की लापरवाही ने उसकी सारी कोशिशें विफल कर दीं। तीन अस्पतालों के चक्कर लगाने के बाद भी मनीषा की बच्ची को समय पर इलाज नहीं मिल सका। यह घटना केवल एक मां के संघर्ष की नहीं, बल्कि उस व्यवस्था पर भी करारा प्रहार है, जो आम लोगों की जरूरतों को अनदेखा करती है।“
एक आदिवासी मां की संघर्ष की कहानी जिसने अपनी 11 महीने की बच्ची को बचाने के लिए हर मुमकिन कोशिश की, लेकिन अंत में उसकी बच्ची की मौत हो गई। यह घटना शिवपुरी जिले की है, जहां मनीषा आदिवासी ने अपनी बच्ची को अस्पताल पहुंचाने के लिए उफनते नाले को पार किया और तीन अस्पतालों के चक्कर लगाए। लेकिन बावजूद इसके, उसकी बच्ची की जान नहीं बच सकी।
बच्ची की मौत और एम्बुलेंस की अनुपलब्धता: रविवार रात को मनीषा की बच्ची ने जिला अस्पताल में अंतिम सांस ली। दुखद पहलू यह है कि बच्ची की मौत के बाद भी परिवार को अस्पताल से जाने को कह दिया गया, लेकिन एम्बुलेंस उपलब्ध नहीं कराई गई। अपनी मृत बेटी के शव को लेकर मनीषा ने पहले पैदल यात्रा की, फिर ऑटो और बस से रात 2 बजे अपने गांव पहुंची।
रक्षाबंधन पर मायके आई थी मनीषा: मनीषा का ससुराल रन्नौद थाना क्षेत्र के अकाझिरी के पास गुर्जन गांव में है। 11 महीने पहले उसने जुड़वां बेटियों को जन्म दिया था। रक्षाबंधन के मौके पर वह अपने मायके, लुकवासा के बरखेड़ी गांव आई थी। शनिवार रात को जुड़वां बच्चियों में से एक की तबीयत बिगड़ गई और उल्टी-दस्त शुरू हो गए। बारिश के कारण बच्ची की हालत और भी खराब होती गई।
मां का संघर्ष: रविवार सुबह मनीषा ने अपनी बच्ची को सिर पर लपेटकर नाले को पार किया और तुड्याद गांव के एक क्लिनिक पहुंची। लेकिन डॉक्टर की दवा के बावजूद बच्ची की तबीयत में सुधार नहीं हुआ। इसके बाद मनीषा ने बच्ची को लेकर लुकवासा अस्पताल का रुख किया, लेकिन वहां भी उचित इलाज नहीं मिला और उसे कोलारस अस्पताल जाने को कहा गया।
जिला अस्पताल में इलाज की कमी: कोलारस अस्पताल में भी बच्ची की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ और मनीषा को जिला अस्पताल भेज दिया गया। वहां पहुंचने पर भी भीड़ और देर से इलाज के कारण बच्ची को नहीं बचाया जा सका। मनीषा का कहना है कि अगर सही समय पर इलाज मिला होता तो शायद उसकी बच्ची की जान बचाई जा सकती थी।
शव ले जाने के लिए एम्बुलेंस नहीं मिली: बच्ची की मौत की पुष्टि रात 9 बजे की गई। लेकिन शव ले जाने के लिए कोई एम्बुलेंस उपलब्ध नहीं कराई गई। मनीषा ने अस्पताल के स्टाफ से एम्बुलेंस की गुहार लगाई, लेकिन अंततः इंकार कर दिया गया। दुखी और थकी हुई मनीषा को कुछ लोगों ने चंदा इकट्ठा कर बस का किराया दिया।
रात 2 बजे गांव पहुंची मां: रात 10 बजे तक अस्पताल में भटकने के बाद मनीषा ने अपनी मृत बेटी को गोद में लेकर पैदल ही बस स्टैंड का रास्ता तय किया। एक टैक्सी वाले की मदद से वह बस स्टैंड पहुंची और वहां से बस में चढ़कर रात 2 बजे लुकवासा पहुंची। अंततः गांव पहुंचकर परिवारवालों ने बच्ची को दफनाया।
रेडक्रॉस की जिम्मेदारी पर सवाल: जिला अस्पताल के सिविल सर्जन डॉ. बीएल यादव का कहना है कि शव वाहन भेजने की जिम्मेदारी रेडक्रॉस प्रबंधन की होती है, लेकिन यह क्यों नहीं भेजा गया, इसकी जानकारी उन्हें नहीं है। हालांकि रात 11 बजे परिजनों को शव फ्रीजर में रखने की पेशकश की गई थी, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया।
यह घटना शिवपुरी जिले में स्वास्थ्य सेवाओं और आपातकालीन व्यवस्थाओं की दुर्दशा को उजागर करती है। मनीषा के संघर्ष की यह कहानी शासन-प्रशासन के प्रति गंभीर सवाल खड़े करती है।

सहरिया क्रांति संयोजक संजय बेचैन का कहना है कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं, लेकिन जब जरूरत होती है, तो गरीब और आदिवासी समाज को वही लचर व्यवस्था मिलती है, जो उसे निराशा और अंततः मौत की कगार पर छोड़ देती है। मनीषा का दर्द केवल उसका व्यक्तिगत दर्द नहीं, बल्कि उस सहरिया आदिवासी समाज का दर्द है जो हर रोज इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था का शिकार होता है। यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर कब तक हमारी व्यवस्था गरीबों और वंचितों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ती रहेगी?

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